Friday, 31 July 2009
मूर्ति बनाम समाधी
राजघाट विश्व प्रसिद्द और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक रास्ट्रीय पिता महात्मा गाँधी की समाधी हैं। दिल्ली जैसे शहर में जहाँ प्रदुषण एक समस्या हैं, में राजघाट जैसे एक समाधी स्थल पर जाने के बाद व्यक्ति हरियाली भरे वातावरण में राहत महसूस करता हैं ।पिछले दिनों एक जीवित दलित नेता द्वारा अपनी मुर्तिया स्थापित करने को लेकर लगे राजकीय धन के दुरूपयोग पर अपने जीवनकाल में ही बनाये गए अपने स्मारकों की तुलना राजघाट एवं अन्य समाधी स्थलों से की । विश्व परषिद लोगो की समाधियों से एक जीवित व्यक्ति के मूर्ति स्मारक की तुलना जायज़ नही हैं । उच् अभिलाषी राजनैतिक सफर के लिए नेता में दूरदर्शिता होना जरुरी हैं . और एक दूरदर्शी नेता भला क्यो राजकीय धन का प्रयोग विकास कार्यो के स्थान पर अपनी मुर्तिया स्थापित करने हेतु करेगा। व्यक्ति इस तरह के काम अपने जीवन के अंत में करता हैं कहीं ये दलित नेता अन्दर-अन्दर अपने राजनैतिक सफर के अंत का अनुमान लगा कर तो नही चल रहा। किंतु यदि नेता दूरदर्शी हैं तो अपने जीवन में अपनी मुर्तिया लगा कर असंख्य जातियों जिन्हें एक शब्द में दलित नाम से जाना जाता हैं, के मशीहा बाबा साहब डॉक्टर बी आर आंबेडकर जी के कद को दलित आन्दोलन में छोटा करने का प्रयास तो ये दलित नेता नही कर रहा हैं , इस पर गहन चिंतन की जरुरत हैं। जहाँ तक वर्तमान में देश पर सत्तासीन नेत्रत्व द्वारा दलित नेतृत्व पर राजकीय धन एवं कुर्सी के दुरूपयोग और जनता के परेशां और पस्त होने के लोगो द्वारा आरोप लगाये जा रहे हैं , इसपर जनता का निर्णय तो आगामी चुनाव में मिलेगा। पर यदि दलित नेतृत्व लोकतान्त्रिक नियमो के साथ सरकार चलाने में नाकाम हैं तो सत्तासीन देश के नेता अपनी संविधानिक ताक़त का उपयोग कर लोकतान्त्रिक प्रयास क्यो नही करते ?वस्तुत में वोट बटोरने के खेल में कोई मात नही चाहता , कार्यवाही वोट के खेल को बिगाड़ सकती हैं एक विशेष जाती के वोट हाथ आते-आते निकल सकते हैं। सत्ता के भूखे नेता अब लोकतंत्र को बेच के खाने को आतुर हैं . वो वर्तमान दलित नेत्रत्व हो या अन्य किसी दल का नेत्रत्व हो ।अब राजनीती लोकतंत्र और सिधान्तो की लिए नही वोट तंत्र के लिए होती हैं ।
ये मेरा व्यक्तिगत मत हैं कि भाविष्य में सरकार के धन के बल पर महापुरुषों को छोड़ कर किसी भी नेता के नाम पर स्मारक और मूर्ति स्थापित करने के लिए निर्णय का अधिकार जनता के पास या लोकतंत्र के हाथो में हो। जिस भी नेता की मूर्ति स्थपित की जानी हो, इसका फ़ैसला अलग अलग धर्मो और जातीयों के लोग करे ताकि ये तो पता चले कि जिसकी मूर्ति लगे जा रही हैं, वह उसके लायक भी हैं या नही, क्या उसका कार्य वाकई लोकतंत्र के हित में और समानता की सीमओं में रहा हैं ? तभी बड़े शहरो में हरियाली के स्थान पर बनाये जा रहें पत्थरों के उपवनों और सरकारी धन के दूरुपोग से बचा जा सकेगा।
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