Friday, 31 July 2009
विकल्प की तलाश में
विकल्प की तलाश में मैं भी निकल गया, वस्तुत में लोकतंत्र को चलने का संवैधानिक तो सत्तासीनों ही मिलता हैं , या कहा जाए की जिसको जनता बहुमत देती हैं उस दल का होता हैं। और ये जनता किसको चुनती हैं ये देशकी जनता पर निर्भर होता हैं। लोकतंत्र के बिगडे हुए स्वरुप को हमारे चारो मजबूत स्तम्भ बदलने देना नही चाहते जागरूक जनता का विवेक के साथ निर्णय कर किया गया कोई भी बदलाव, लोकतंत्र के नाम पर चल रहे राजतन्त्र के लिए घटक हो सकता हैं । जब भी लोकतंत्र के बिगडे हुए स्वरुप पर सत्तासीन और सत्तालोलुप नेता मंथन करते हैं तो देश का चौथा मज़बूत स्तम्भ भी उनका समर्थन करता हैं कि वर्तमान व्यवस्था में आंशिक सुधार तो हो सकता हैं किंतु परिवर्तन असंभव हैं।
किंतु असंभव यहाँ कुछ भी नही नम्बर-2 की लाइन से सब होता हैं या बिकता और इमानदारी से खड़े लोग अपने अवसर आने की प्रतिक्छा करते-2 निराश हो कर लौट जाते हैं। जो नम्बर -2 से आसानी से संभव हैं। वो नम्बर-1 इमानदारी से संभव क्यो नही? वस्तुत यदि तंत्र सुधरता हैं तो नम्बर-2 से संभव हो रहे कामो से मिलने वाले अवैधानिक लाभ ख़त्म हो जायेंगे। स्वार्थवादी मानसिकता में हर दल का नेता चाहे वह सत्तासीन हो चाहे सत्ताहीन सब नम्बर-2 का अस्तित्व कायम रखना चाहता हैं ताकि दुकाने बंद न होने पाए। स्वार्थवादी मानसिकता आज हम सब की भी हैं , हम सत्ता लोकतंत्र के हाथो में नही , उस राजतन्त्र के हाथो में देते हैं जिससे हमे निज लाभ की अत्यधिक आशा हैं अब भले ही शेष लोगो को नुक्सान होता हो। 3 रुपये किलो में दिया जाने वाला राशन जरूरतमंद लोगो तक नही पहोच रहा की जो 18 रुपये किलो में बाज़ार में बेच दिया जाता हैं , लोकतंत्र के पल-पल होते खात्मे का गम मानाने की लिए अगर मदिरा पान करने जायोगे तो वहां भी कीमत 5 रुपये ज्यादा लगती हैं पता नही किस बात की । मैं ही नही ये सब बातें हम सब जानते हैं लेकिन सुधार हेतु विकल्प नही जानते या हम सब भूल बैठे हैं लोकतंत्र की ताकात हम सब हैं , हमारे हाथ में हैं लोकतंत्र का निर्माण पर न जाने क्यो हम भाग्य के भरोसे वक्त के बदलने की राह देख रहें हैं ।
वो हम ही हैं शैदाई जो शम्मे जलाते हैं ,
वो भी हम ही हैं जो शोलो को बुझाते हैं ,
हुशन में अदाओ को जिंदगी हमने ही दी हैं
वरना उछल के पत्थर कब आसमान तक जाते हैं ,
यदि कोई सही व्यक्ति अपनी प्रतिभा के दम पर लोकतंत्र की सही सोच के साथ मैदान में आता हैं तो उसका देश की जनता या स्वार्थवादी सोच तिरस्कार करती हैं , लोकतंत्र के युद्घ के इतिहास में अनेको ऐसे नाम दफ़न हैं यदि जनता उनको अवसर देती तो सुधर संभव था । चलिए जनता यदि लोकतंत्र के साथ अन्याय करती हैं तो उसका परिणाम भी भोगती हैं किंतु बुद्दिजीवी आलोचक वर्ग का कर्त्तव्य भी यहाँ संदेहात्मक और हास्यप्रद हैं।
इनका काम केवल आलोचना करना हैं, सुधार हेतु विकल्प देना नही रहा है । जब एक छोटे कद का आदमी जब सही सोच के साथ लोकतंत्र के रण में उतरता हैं तो आलोचकों की तलवार से पैनी आलोचना उसको लड़ने से पहले ही पस्त कर देती हैं और यदि आलोचना लोकतंत्र में सुधार ला पाती तो आज ऐसे हालत न होते। बड़े कद के नेता और राजतन्त्र का सुख भोग रहे सत्तासीन इस आलोचना को एक कहावत की तरह लेकर कि कुत्तो के भोखने से हाथी अपना रास्ता नही बदलते, नज़रंदाज़ कर देते हैं। भूमंदालिकरण के दौर में होते व्यवसायीकरण से आलोचना और आलोचक भी अछूते नही हैं । निज लाभ की प्रतायाषा में अपने वास्तविक कर्तव्य से विमुख हुए हैं । कोई भी मीडिया हो ख़बर बनती हैं चलती हैं और सौदा होने पर शांत हो जाती हैं। वस्तुत तो लोकतंत्र का चौथा मजबूत स्तम्भ यदि ख़ुद में सुधार करें और निष्ठा से काम करे तो ही राजतन्त्र के विरुद्द एक अधिक प्रभावशाली आन्दोलन का जनम हो सकता हैं ।
वो चाहतें नही हैं , अब वो जूनून नही हैं ,
हमने जाना हैं तेरी दुनिया में सुकून नही हैं ,
इन शीशे के दिलो से शैदाई अब कोई आस न करिए ,
जिसमें मिलती थी वफ़ा, रगों में आदमी की, वो खून नही हैं ,
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