किस्सा यूँ कर भी तो 'शैदाई' बयाँ हो सकता हैं !
कि बिसरा हुआ वक़्त भी सायबां हो सकता हैं !
जहन की उलझनों को गर लब्ज़ दे सको, तो दो,
एक ग़ज़ल नयी, एक मिसरा नया हो सकता हैं !
उनके पसीने का दरिया भला तुम क्यों बनने दोगे,
निकल चला तो महल तुम्हारा तबाह हो सकता हैं !
चलिए एक बार फिर से हूँ "दोस्तों" मैं नज़र आपकी,
मुझ में मेरा बस और बस मेरा, क्या हो सकता हैं !
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