Sunday, 2 August 2009

नेता और भगवान्

मैं लगभग 6 साल का था , हम बच्चो को मातम से दूर रखा जाता था। मुझे इससे पहले पता था की आदमी जब बूढा हो जाता हैं वो भगवान के पास चला जाता हैं किन्तु मौत एक जवान की हुई थी सो मातम भी जवान था , मेरा मासूम बचपन उस मातम तक पहुँच गया, पहली बार इतना विलाप देखा था, जिसका प्रभाव मेरे बालक मन पर पड़ना स्वाभाविक था। मैं जीवन और म्रत्यु के फेर में पड़ गया और साथ में भगवान को भी शामिल कर लिया। तन्हाई के मिलते ही मैं अपने सवालो के जवाबो की खोज में विचरण करने लगा, अपनी एक दुनिया का ख्याल करने लगा जिसमें लोग़ दुखी और मरते न हो। लगभग 15 वर्ष बाद मुझे मौका मिला कि मैं समझू ये माजरा क्या हैं? लोकतंत्र में सबकी अलग-2 राय हो सकती हैं सो मैं भगवान् पर प्रतिक्रिया नहीं करूँगा कित्नु दुःख और भगवान के रिश्ते पर जिसको पहले भी साहित्यकारों ने कुछ यूँ कहा हैं कि दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करें न कोई तो दुःख का आस्तित्व मुझे भगवान के आस्तित्व से जुडा मिला क्योकि दुःख में भगवान याद आता हैं। अगर सब सुखी हो गये तो दुनिया में कौन भगवान का नाम लेगा? और जब कोई भगवान का नाम ही नहीं लेगा तो भगवान का तो आस्तित्व ही ख़त्म हो जायेगा। जीवन का सत्य म्रत्यु हैं, इसके बाद किसी के पास प्रमाण नहीं की आदमी कहा जाता हैं। जब खाली हाथ आना हैं और खाली हाथ जाना हैं तो क्या खोना है क्या पाना हैं? फिर आदमी अंधी दौड़ में क्यों भागता हैं? खैर इसका जवाब तो जीवन चक्र हैं, एक संतुलित पहिया जो घूम रहा हैं। यदि संतुलान बिगडा तो प्राकृतिक आपदा आई। मेरे अनुसार जीवन में पञ्च तत्त्व mahatvapurn है, पांचो से जीवन का आस्तित्व हैं और जीवन से इस्वर का आस्तित्व हैं, इतनी सी बात समझने के लिए लोग़ ज्ञान बाटने की दुकानों पर कतार लगाये हैं। ज्ञान वो प्राप्त करे जो मुर्ख हैं। ज्ञान प्राप्त करने वालो की भी कमी नहीं, एक जरा सा रहस्य जो न समझ सके, भगवान् ऐसे मुर्ख क्यों बनता हैं ? इसका सीधा सा जवाब हैं कि यदि दुःख और मुर्ख नहीं होंगे तो भगवान् का नाम कौन लेगा? बिलकुल भगवान् की तरह सोच कर हमारे नेता चल रहे हैं कि यदि मुर्ख और दुखी लोग़ न हुए तो नेता को कौन याद करेगा? जबकि लोकतंत्र का अर्थ एक सत्तासीन जनता के दुखो को हरे और जनता को उसे याद न दिलाना पड़े की उसे क्या करना हैं?

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