Friday, 3 September 2010

मैं बन्दा ही रहूँ शैदाई और तू खुदा हो जाएँ

अगर वक़्त मुझपर मेहरबान हो जाएँ
वो दौर शायराना फिर से जवान हो जाएँ
तुम दर्द के समंदर में उतरने तो दो
लब्जो के मोतियों सा मेरा भी निशा हो जाएँ
इस ज़माने में एक भी बेघर न रहें
गर आदमी के दिल में जगह हो जाएँ
क्या मायने हैं मजहब और रिवाजों के भला
गर इंसानियत की दौलत सबको अता हो जाएँ
सियासत अब बस व्यापार हो गयी दोस्तों
चल निकले तो आदमी क्या से क्या हो जाएँ
फासले तेरे मेरे दरम्यान रहेंगे तबतक
मैं बन्दा ही रहूँ शैदाई और तू खुदा हो जाएँ

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