अगर वक़्त मुझपर मेहरबान हो जाएँ
वो दौर शायराना फिर से जवान हो जाएँ
तुम दर्द के समंदर में उतरने तो दो
लब्जो के मोतियों सा मेरा भी निशा हो जाएँ
इस ज़माने में एक भी बेघर न रहें
गर आदमी के दिल में जगह हो जाएँ
क्या मायने हैं मजहब और रिवाजों के भला
गर इंसानियत की दौलत सबको अता हो जाएँ
सियासत अब बस व्यापार हो गयी दोस्तों
चल निकले तो आदमी क्या से क्या हो जाएँ
फासले तेरे मेरे दरम्यान रहेंगे तबतक
मैं बन्दा ही रहूँ शैदाई और तू खुदा हो जाएँ
Friday, 3 September 2010
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