फिर से दरिया ऐ इश्क में डूब जाने की
मेरी हसरत ही नहीं हैं उन्हें पाने की
मैं उनकी नज़रें इनायत की फिराक में नहीं
वजह कुछ और भी होती हैं रूठने, मान जाने की अक्सर इस पर मेरे दीवानेपन का हरम होता हैं
मुझे जो आदत हैं शैदाई बेसबब मुस्कराने की महुब्बत को समझा हैं मैंने एक आज़ाद ख्याल
एक पिंजरे में कैद रही हैं सोच इस जमाने की मेरा ख्याल निकला हैं उनकी जुबान से कई बार
यूँ तो कोशिशे खूब कर लेते हैं हुश्न वाले छिपाने की अमा दिल से निकला हैं जो दिला तलक जायेगा
क्या जरुरत हैं कहने की और जताने की एक आरजू है की शैदाई मुझे खुदा मिले
ख्वाहिश रखता हूँ ताउम्र साथ बावफा निभाने की
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